Saturday 31 March 2012

अकुलाहट


एक अकुलाहट सी रहती है,
कि खोल कर मन के पन्ने
उकेरूँ  कुछ अहसास ।
तहों में दबा मुखर हो जाए
मन का सुवास ।
और पुरवा के संग उड़ जाने दूँ
उस ओर जहाँ
वृतों में घिरे तुम अकुला रहे होवो ।
फिर छूकर उड़े
पुरवा उस ओर जहाँ मिलती हैं
तमाम नदियाँ अपने सागर से
कुछ पल ठिठक कर
देखे वो अनुपम नज़ारा
और ले सीख,
कि बँधकर वृतों में
नहीं जीना उसे
लेकर उपनामों की भीख ।
वो बेखौफ़ बेपरवाह
उड़ जाने को उद्धत्
रचे अपने लिए शब्दों का संसार
निर्माणरत,निर्भय रचे अपने लिए
अपने सपनों का संसार ।
जहाँ हो चतुर्दिक हास।
गुंजायमान हो परिहास
फैला हो दूर तक सुहास  
जहाँ न हो कोई उच्छ्वास
ठहर कर रह जाए मधुमास ।।
               
                    "पत्थर का दर्द"

Monday 26 March 2012

उम्मीद


रात काली आ मुझे बताती
कि, सुबह ज़रूर आएगी,
तनहाई की शाम के बाद
सुबह महफ़िल में गाएगी।
जिसे दिल ने चाहा बहुत
उसे याद मेरी भी आएगी,
दिल चाहेगा जब जिसको भी
तनहाई बहुत तड़पाएगी।
हम भी महफ़िल में बैठे थे
हमने भी महफ़िल जाना था,
दुनियाँ की नज़रों में गिरकर भी
हमने जीना जाना था।
डगमग क़दम हमारे भी
हमने भी सम्भलना जाना था,
रोते हुए वीरानों को भी
खिलती कलियाँ दिखलाना था।
हम रोए भी और तड़पे भी
हमने हँसना भी जाना था,
हवा से जब कुंडी खड़की
उम्मीद किसी का आना था।
उम्मीद किसी की लिए हुए
मौसम का आना-जाना था,
बेकार उसे हम क्यों रोयें
जिसे लौट कभी ना आना था।

इस दुनियाँ में

यहाँ हर बज़्म हर जज़्बात को बिकते देखा
ग़मे दिल ग़मे हालात पर मिटते देखा,
देख लिया इतना कि कोई तमन्ना न रही
वक़्त पड़ते ही अपने साये को सिमटते देखा,
कौन कहता है यहाँ रिशते बनाए जाते है
यह वो दुनियाँ है जहाँ रिशतों को बिखरते देखा,
चंद लम्हे को सभी अपने बनते हैं मगर
साथ जीने वालों को साथ न  मरते देखा,
हम खुशनसीब रहे हमें प्यार तो नसीब रहा
प्यार कि दुनियाँ को पलकों में उजड़ता देखा,
हमने कुछ देर की गुलशन में बहारें देखी
एक झोंके से यहाँ बागों को उजड़ते देखा।।
                                     -पत्थर का दर्द

Saturday 17 March 2012

कलयुग के दोहे


अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिए दौर....
वोट जित ले जाते नेता, बाँट मुफ्त की सौर।

विद्या-धन-उधम बिना, कहाँ जू पावै कौन....
सब मुँह देखी बात थी, अब नेता हैं मौन।

भले बुरे सब एक सौं, जो लौं बोलत नहीं....
जैसे सज्जन बनते नेता, ऋतु चुनाव के माहिं।


कारज धीरे होते है, काहे होत अधीर....
नेता चिकना है घड़ा, केतक बहाओ नीर।

सुमन निज मन की बिथा, मन ही रखो गोय....
कुर्सी फले-फुलाए नहीं, केतक सींचे कोय।

सुमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारी....
सुलह सुई का काम क्या, अब उठा लीजिए तलवारी।