एक अकुलाहट सी रहती है,
कि खोल कर मन के पन्ने
उकेरूँ कुछ अहसास ।
तहों में दबा मुखर हो जाए
मन का सुवास ।
और पुरवा के संग उड़ जाने दूँ
उस ओर जहाँ
वृतों में घिरे तुम अकुला रहे होवो ।
फिर छूकर उड़े
पुरवा उस ओर जहाँ मिलती हैं
तमाम नदियाँ अपने सागर से
कुछ पल ठिठक कर
देखे वो अनुपम नज़ारा
और ले सीख,
कि बँधकर वृतों में
नहीं जीना उसे
लेकर उपनामों की भीख ।
वो बेखौफ़ बेपरवाह
उड़ जाने को उद्धत्
रचे अपने लिए शब्दों का संसार
निर्माणरत,निर्भय रचे अपने लिए
अपने सपनों का संसार ।
जहाँ हो चतुर्दिक हास।
गुंजायमान हो परिहास
फैला हो दूर तक सुहास
जहाँ न हो कोई उच्छ्वास
ठहर कर रह जाए मधुमास ।।
"पत्थर का दर्द"