Sunday 28 August 2011

बादल

ऊपर आकाश में
एक छोटा सा बादल,
कैसे ढँक लेता है
सारा उजियारा
अपनी कोशिशों में वह बार-बार
नाकाम होकर भी एक बार तो
कुछ क्षण मात्र को
पर, वह अपनी
विजय यात्रा में
सफल हो जाता है।
भले ही सूर्य की
तपन से पिघल कर
पुनः धरा पर आ जाता है
पर, एक बार फिर
ऊपर आकाश में,
एक छोटा सा बादल
छा जाता है।
             सुनीता 'सुमन'
            "पत्थर का दर्द"

Monday 15 August 2011

आज़ादी

आज़ादी किसे अच्छी नहीं लगती है ?
आज़ाद हर कोई होना चाहता है।
बेटे-बेटियां..........
अपने माँ-बाप की पाबंदियों से
औरतें अपने घर की दहलीज से
और मर्द अपनी जिम्मेदारियों से आज़ाद होना चाहता है
आज़ादी किसे अच्छी नहीं लगती
आज़ाद हर कोई होना चाहता है
कुर्सी अपने अनचाहे बोझ से
नेता पंचवर्षीय चुनावों से
भ्रष्टाचारी कानूनी दाव पेचों से
और कानून..........
अपनी धाराओं से
आज़ाद हो जाना चाहता है।
आज़ादी किसे अच्छी नहीं लगती
आज़ाद हर कोई होना चाहता है।
              सुनीता "सुमन"
              "पत्थर का दर्द"

Saturday 13 August 2011

स्वतंत्रता दिवस

खुल कर जब कर सकें
हम अपने भावों को प्रकट
जब अपने ही विचारों पर
आन पड़े हो संकट
जब अपने उद्गार को
दबा देने को हों विवश,
फिर बोलो हे बंधू-जन
कैसे मनाएँ स्वतंत्रता दिवस !
अंग्रेजों ने भारत छोड़ा
मिली हमें आज़ादी है,
जब अपने ही शत्रु बनें
मैं कहती हूँ बर्बादी है,
क़लम हुआ कितनों का सर
किन्तु नहीं बुझी है प्यास,
फिर बोलो हे बंधू-जन
कैसे मनाएँ स्वतंत्रता दिवस !
अपनी भाषा भूल जहाँ हम
और भाषा अपनाते हों,
भूल अपनी संस्कृति को
गुलामी की ढोल बजाते हों,
भाषा और संस्कृति ही जब
रो रही सिसक-सिसक,
फिर बोलो हे बंधू-जन
कैसे मनाएँ स्वतंत्रता दिवस !
पूरब का उगता सूर्य छोड़
जब पश्चिम को हम जाते हैं,
विद्वानों की धरती पर फिर
मुर्ख ही हम कहलाते हैं,
निरक्षरता के अंधकार में
डूबा हो जब सारा दिवस,
फिर बोलो हे बंधू-जन
कैसे मनाएँ स्वतंत्रता दिवस !

Saturday 6 August 2011

बूँद का अस्तित्व

आकास की छाती भी शायद
व्यथा से उमड़ी घुमड़ी होगी,
आँखें दर्द से भर आई होगी
फिर बूँद बन धरा पर आई होगी
और बारिस कहलाई होगी ।
उधर आसमा का कलेजा
चाक होता है
इधर धरती तृप्त होती है
एक बूँद ही है जो
अम्बर की पलकों से गिरकर
अपना अस्तित्व खोती है ।
सुनीता 'सुमन'
" पत्थर का दर्द "

Friday 5 August 2011

तनहाई

हम सुनाते रहे हमेशा
अपनी ही कहानी
अपने ही दिल को,
नीरवता जब छाई तो
चाँदनी में खड़े हुए
ताकते ही रहे हम
अपनी परछाई को,
नीरसता सी रही
जीवन में सदा
हम पाटते ही रहे
निःशब्दता की खाई को,
मंजिल तक पहुंचे
साथ अकेलेपन के
कब्र में पड़े हुए
ताकते ही रहे
हम अपनी तनहाई को ।
                     सुनीता 'सुमन'
                    "पत्थर का दर्द"

Thursday 4 August 2011

इबारत

मैं रेत पर लिखी गयी
कोई इबारत तो नहीं,
लहरें जिसे खींच ले जाएँ
और मेरा वज़ूद मिट जाए।
मैं वो हक़ीकत हूँ जो
सांसों से बयां होती हूँ,
मैं वो सच हूँ जो
धड़कन से बयां होती हूँ।
मैं कोई गुज़रा हुआ वक्त तो नहीं
जिसे लौटाया न जा सके ,
और कोई बीता हुआ मौसम
की,जिसे बुलाया न जा सके।
मैं वो वर्तमान हूँ जो
भूत अभी हुआ नहीं,
मैं वो अहसास हूँ जिसे
महसूस हर कोई कर सके।
                     सुनीता 'सुमन'
                    "पत्थर का दर्द"